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अखिल भारतीय विद्वत् परिषद् की स्थापना क्यों?
विद्वत् संसद की अनिवार्यता क्यों?
भारतवर्ष की पवित्र धरती पर भारतीय अष्टादश विद्याओं के क्षेत्र में कार्यरत प्रतिभाओं के समुत्कर्ष हेतु तथा वैदिक वाङ्मय एवं भारतीय संस्कृति के ध्वज को अंतरिक्ष में सुस्थापित करने के लिए अखिल भारतीय विद्वत् परिषद् की स्थापना की गई। विद्वत् परिषद् का स्पष्ट उद्देश्य था कि विद्या के किसी भी क्षेत्र में धर्म और संस्कृति के अनुकूल कार्यरत प्रतिभाओं को चिह्नित किया जाए। राष्ट्र जीवन को संपुष्ट करने वाली प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया जाए। भारतवर्ष के सभी प्रांतों से आने वाले सरस्वती साधकों को प्रश्रय दिया जाए। इस कार्य को करते हुए संस्था ने अपने समुज्ज्वल स्वरूप को निरंतर बनाए रखा। संस्था की प्रत्येक गतिविधि में भारतीय संस्कृति के प्रतीक चिह्न चयनित किए गए। यूरोप और अमेरिका की विद्याओं, सभ्यताओं और प्रतीकों की तुलना में संस्था ने भारतीय अष्टादश विद्याओं को अभिषिक्त किया। 1. ऋग्वेद, 2. यजुर्वेद, 3. सामवेद, 4. अथर्ववेद, 5. व्याकरण, 6. ज्योतिष, 7. निरुक्त, 8. कल्प, 9. शिक्षा, 10. छंद, 11. मीमांसा, 12. न्याय, 13. धर्मशास्त्र, 14. पुराण, 15. आयुर्वेद, 16. धनुर्वेद, 17. गंधर्ववेद तथा 18. अर्थशास्त्र/शिल्पशास्त्र को मौलिक स्वरूप में चर्चा में लिया। परिणामतः आज भारतीय विद्याओं को यूरो-अमेरिकन एकेडमी के समकक्ष महत्त्व मिलने लगा है।
प्राचीन भारतवर्ष में धर्म संसद को सर्वाधिक महत्त्व प्राप्त था। इसके द्वारा दिए गए निर्णय विद्वत् संसद और लोक संसद दोनों को मान्य होते थे। राष्ट्र जीवन में धर्म और संस्कृति का समन्यवन निर्बाध होता रहे तथा राष्ट्राध्यक्ष धर्मानुकूल शासन करता रहे इसके लिए धर्म संसद तथा लोक संसद के बीच विद्वत् संसद सेतु का काम करती रही। धर्म संसद से ही राष्ट्र विनष्ट हो जाता है। विद्वत् संसद से ही राष्ट्र तिरस्कृत हो जाता है। लोक संसद से ही राष्ट्र विखंडित हो जाता है। अतः श्रेष्ठतम राष्ट्र अपने तीनों स्वरूपों में सुस्थित रहता है।