मनुष्य का एक चान्द्रमास पितरों का एक अहोरात्र होता है। मनुष्य का कृष्णपक्ष पितरों का दिन होता है,एवं शुक्लपक्ष रात्रि। कन्या राशि में सूर्य के स्थित होने पर आश्विन कृष्ण पक्ष पितृपक्ष के रूप में मनाया जाता है। यह पक्ष देव-ऋषि-पितृ-तर्पण एवं पितरों के श्राद्ध के लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है।
समन्त्रक प्रदत्त जल से देवर्षिपितृगण तृप्त होते हैं। अत: तर्पण एक महत्त्वपूर्ण धार्मिक कृत्य है। पिण्ड (आहार) दान के माध्यम से पितृलोक में विद्यमान पितरों को संतृप्त किया जाता है। इसे श्राद्ध कर्म कहते हैं। श्राद्ध के माध्यम से जहाँ हम अपने पितरों को पिण्ड प्रदान करते हैं वहीं तर्पण के माध्यम से प्रजापति, संवत्सर, ब्रह्मादिदेवता, नाग, सागर, पर्वत, सरिता, मनुष्य, यक्ष, राक्षस, सुर्पण, पशु, वनस्पति, औषधि और चतुर्विध भूतग्राम को भी तृप्त करते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि तर्पण और श्राद्ध विश्वसत्ता के लिए मनुष्य के द्वारा प्रदत्त श्रद्धा का वह भाग है जो समन्त्रक देने के कारण ब्रह्माण्ड के लिए कल्याणकारी होता है।
ब्रह्मलोक से लेकर अध: लोक तक में फैले हुए देव-ऋषि-पितृ-मानव आदि समस्त तत्त्वों को हम पृथ्वी के प्रथम अन्न तिल से पिण्ड (आहार) एवं जल प्रदान करते हैं। ये हमारी अन्तब्र्रह्माण्डीय समन्त्रक व्यवस्था है। इस व्यवस्था के अन्तर्गत हम उन सभी को स्मरण करते हैं जो हमारे किसी अन्य जन्म के बंधु होते हैं अथवा अबंधु होते हैं। हमसे जो भी जल और पिण्ड की आकांक्षा रखता है उसे हम बंधुभाव से पिण्ड और जल प्र्रदान करते हैं।
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं देवर्षिपितृमानवा:।
तृप्यन्तु पितर: सर्वे मातृमातामहादय:।।
अतीतकुलकोटीनां सप्तद्वीपनिवासिनाम्।
आब्रह्मभुवनाल्लोकादिदमस्तु तिलोदकम्।।
येऽबान्धवा बान्धवा वा येऽन्यजन्मनि बान्धवा:।
ते तृप्तिमखिला यान्तु यश्चास्मत्तोऽभिवाञ्छति।।
जहाँ पितरों की पूजा नहीं होती है, वहाँ श्रेय की प्राप्ति नहीं होती है। इतना ही नहीं जिस वंश में पितर तिरस्कृत होते हैं, उस वंश में वीर, निरोगी और शतायु पुरुष नहीं पैदा होते हैं-
न तत्र वीरा जायन्ते निरोगी न शतायुष:।
न च श्रेयोऽधिगच्छन्ति यत्र श्राद्धं विवर्जितम्।।
पितृपक्ष में कन्याराशि पर सूर्य के आने से श्राद्ध का महत्त्व और अधिक बढ़ जाता है। कन्याराशि का सूर्य और आश्विनमास का कृष्णपक्ष अक्षयफल को देने वाला होता है। भाद्रपद पूर्णिमा से लेकर आश्विन आमावास्या तक सोलह दिन का अवसर पितरों को तृप्त करने वाला होता है। इन सोलह दिनों में यदि एक दिन भी कोई श्राद्ध करता है तो उसके पितृगण अपना सम्पूर्ण आशीर्वाद प्रदान करते हैं। जिस तिथि में माता-पिता की मृत्यु हुई रहती है, श्राद्ध पक्ष में उसी तिथि के दिन श्राद्ध करते हैं। श्राद्ध करने से अनेक लाभ होते हैं। व्यक्ति पुत्र-पौत्र, धन-धान्य से संयुक्त होकर निरोगी बना रहता है। इस लोक में समस्त सम्पदा को प्राप्त कर वह परलोक में भी सुखी रहता है। श्राद्ध करने वाला व्यक्ति विपुल यश, आयु, प्रज्ञा, कीर्ति, तुष्टि, पुष्टि, बल, श्री, धन, विद्या, स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त करता है-
आयु: प्रज्ञां धनं विद्यां स्वर्गमोक्षसुखानि च।
प्रयच्छन्ति तथा राज्यं प्रीता न¸णां पितामहा:।।
आयु: पुत्रान् यश: कीर्ति तुष्टिं पुष्टिं बलं श्रियं।
पशून् सुखं धनं धान्यं प्राप्नुयात् पितृपूजनात्।।
अतृप्त पितर अपने नि:श्वास से वंशधरों को क्षति पहुँचाते हैं। पितृदोष के कारण रोग, संतानहीनता और धनहीनता उत्पन्न होती है। फलत: अत्यन्त पवित्र धन के द्वारा थोड़े संसाधनों में जो प्रतिवर्ष श्राद्ध करता है, उसे पितृदोष निवारण हेतु बड़े अनुष्ठान नहीं करने पड़ते।
श्राद्ध करने की विधि को श्राद्ध की पुस्तकों में देखना चाहिए अथवा किसी योग्य वैदिक द्वारा श्राद्ध सम्पन्न कराना चाहिए।